सभी पुराण और ग्रन्थ और इतिहास भी परमपरागत रूप से केवल उन्ही योधाओं की बात करते रहे हैं जो किसी युद्घ विशेष में विजयी घोषित हो सके । वह भी योद्धा ही थे जो पराजित हुये । सोच कर देखें कि जिन विजयी योधाओं को महापुरुष की संज्ञा देकर वृहद रूप से महिमामंडित किया गया है या किया जा रहा है वह यदि पराजित हो गए होते तो आज उनका स्वरुप क्या होता । निस्संदेह उनकी पूजा अर्चना का क्रम प्रारम्भ ही न होता और उन्हें कोई खराब सा नाम देकर आसानी से भुला दिया गया होता । वरनु होता यह कि कोई भी जो युद्घ में विजयी हुवा होता, भले ही वह कुछ भी रहा हो , जन मानस उसी को सम्मान देता और उसी की पूजा अर्चना करता। युगों युगों से यह सिलसिला चला आ रहा है कि जो जीता वह भगवान् हो गया और जो हार गया वह शैतान कहलाया ।
राम और रावण के मध्य जो महा युद्घ हुआ उसमे रावण का पराक्रम कहीं से कम नहीं दिखता । रामचरित्र मानस का यदि संदर्भ लें तो उस महा युद्घ के बीच एक ऐसा भी अवसर आया जब राम को अपनी सामर्थ्य के विशे में सोचने पर विवश होना पड़ा -
इस संबंध में बाल्मीकि का कथन महत्वपूर्ण है -कथन यह कि इस महायुद्ध में रावण ने राम को कयी कदम पीछे धकेल दिया था । यदि इस युद्घ में रावण अपने आप को विजयी घोषित करवाने में सफ़ल हो गया होता तो आज पूजा राम कि नहीं बल्कि रावण कि हो रही होती । लेकिन विजय घोषणा राम के पक्छ में हुयी । पराजित होने से रावण को निशाचर की संज्ञा मिलना स्वाभाविक था क्योंकि परस्पर विरोधी दो योद्धा न एक साथ विजयी हो सकते हैं और न उन्हें एक साथ भगवान की संज्ञा मिल सकती है। कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ लोग समूह बद्ध होकर रावण की पूजा आरती करते हैं और उसके पराक्रम को याद करते हैं । महाभारत में दुर्योधन का संदर्भ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । वोह भी एक महान पराक्रमी योद्धा था । छल कपट का सहारा लेकर भगवान् कृष्ण उसको पराजित देखने में सफ़ल हुये । महाराष्ट्र में एक स्थान ऐसा है जहाँ उसके नाम का मंदिर है और वहाँ दुर्योधन की पूजा की जाती है । आवश्यक नहीं कि इन गाथाओं को समग्र रूप से विपरीत दिशा में देखा जाये किन्तु स्थिति अनेक स्थानों पर भिन्न दिखेगी यदि शास्त्र, पुराण, ग्रंथ और इतिहास का अध्ययन परंपरागत कुंठा से हट कर तार्किक दृष्टिकोण से किया जाये । ध्यान से देखा जाये तो सारे संग्राम के पीछे कारण था वर्चस्व । किसी भी विषय विशेष को माध्यम बनाकर जिस किसी बात पर संघर्ष रचा गया उस सब के मूल में महत्वाकान्छी ब्याक्तियों की लिप्सापूर्ण लालसा वर्चस्व की ही थी। आज भी यही हो रहा है । कुछ एक वर्ष पहले धूल चाट रहे लोग राजनीति के अखाड़े में पहलवानी करते करते श्रीमान कहे जाने लगे। श्रीमान से महोदय , महोदय से माननीय, मान्यवर , अति सम्माननीय और फिर विकास पुरुष तथा युग पुरुष की संज्ञा से संबोधित किये जाने लगे। कोई विधायक हो अथवा सांसद प्रायः सब की भूमिका संदिग्ध ही होती है । इन को एकमात्र भय वोट का रहता है । इस भय से मुक्त होने का कोई विकल्प इन्हे यदि उपलब्ध हो सके तो पता नहीं ये क्या कर डालें । भ्रष्ट आचरण , भ्रष्टाचार और आतंकवाद की प्रतिमूर्ति इस प्रकार के ब्यक्ति इतिहास में वर्णित क्रूर मानसिकता के तमाम तानाशाहों को बहुत पीछे छोड़ सकते हैं यदि तमाम बातों की तरह वोट पर भी किसी प्रकार से इनका एकाधिकार स्थापित हो जाये । यह बहुत भारी विडम्बना है कि इनका स्वरूप कुछ भी हो परंतु यदि ये अपने बनावटी मसीहा की छवि बनाए रखने में सफ़ल हो जाएँ तो जन मानस को इन्हें दैत्य अथवा नर पिशाच के स्थान पर देवता अथवा भगवान् कह कर पुकारने में अधिक देर नहीं लगेगी । ठीक इसी प्रकार से सद्कार्य में संलग्न कुछ गिने चुने लोग यदि अपने विशुद्ध अनुष्ठान में अंततोगत्वा असफल हो जाएँ तो जन मानस को उन्हें विपरीत संज्ञा से विभूषित करने अथवा उन्हें भ्रष्ट एवं दुराचारी कह कर पुकारने में भी अधिक देर नहीं लगेगी।
राम और रावण के मध्य जो महा युद्घ हुआ उसमे रावण का पराक्रम कहीं से कम नहीं दिखता । रामचरित्र मानस का यदि संदर्भ लें तो उस महा युद्घ के बीच एक ऐसा भी अवसर आया जब राम को अपनी सामर्थ्य के विशे में सोचने पर विवश होना पड़ा -
रावण रथी विरथ रघुबीरा, देख विभीषण भयो अधीरा
इस संबंध में बाल्मीकि का कथन महत्वपूर्ण है -कथन यह कि इस महायुद्ध में रावण ने राम को कयी कदम पीछे धकेल दिया था । यदि इस युद्घ में रावण अपने आप को विजयी घोषित करवाने में सफ़ल हो गया होता तो आज पूजा राम कि नहीं बल्कि रावण कि हो रही होती । लेकिन विजय घोषणा राम के पक्छ में हुयी । पराजित होने से रावण को निशाचर की संज्ञा मिलना स्वाभाविक था क्योंकि परस्पर विरोधी दो योद्धा न एक साथ विजयी हो सकते हैं और न उन्हें एक साथ भगवान की संज्ञा मिल सकती है। कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ लोग समूह बद्ध होकर रावण की पूजा आरती करते हैं और उसके पराक्रम को याद करते हैं । महाभारत में दुर्योधन का संदर्भ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । वोह भी एक महान पराक्रमी योद्धा था । छल कपट का सहारा लेकर भगवान् कृष्ण उसको पराजित देखने में सफ़ल हुये । महाराष्ट्र में एक स्थान ऐसा है जहाँ उसके नाम का मंदिर है और वहाँ दुर्योधन की पूजा की जाती है । आवश्यक नहीं कि इन गाथाओं को समग्र रूप से विपरीत दिशा में देखा जाये किन्तु स्थिति अनेक स्थानों पर भिन्न दिखेगी यदि शास्त्र, पुराण, ग्रंथ और इतिहास का अध्ययन परंपरागत कुंठा से हट कर तार्किक दृष्टिकोण से किया जाये । ध्यान से देखा जाये तो सारे संग्राम के पीछे कारण था वर्चस्व । किसी भी विषय विशेष को माध्यम बनाकर जिस किसी बात पर संघर्ष रचा गया उस सब के मूल में महत्वाकान्छी ब्याक्तियों की लिप्सापूर्ण लालसा वर्चस्व की ही थी। आज भी यही हो रहा है । कुछ एक वर्ष पहले धूल चाट रहे लोग राजनीति के अखाड़े में पहलवानी करते करते श्रीमान कहे जाने लगे। श्रीमान से महोदय , महोदय से माननीय, मान्यवर , अति सम्माननीय और फिर विकास पुरुष तथा युग पुरुष की संज्ञा से संबोधित किये जाने लगे। कोई विधायक हो अथवा सांसद प्रायः सब की भूमिका संदिग्ध ही होती है । इन को एकमात्र भय वोट का रहता है । इस भय से मुक्त होने का कोई विकल्प इन्हे यदि उपलब्ध हो सके तो पता नहीं ये क्या कर डालें । भ्रष्ट आचरण , भ्रष्टाचार और आतंकवाद की प्रतिमूर्ति इस प्रकार के ब्यक्ति इतिहास में वर्णित क्रूर मानसिकता के तमाम तानाशाहों को बहुत पीछे छोड़ सकते हैं यदि तमाम बातों की तरह वोट पर भी किसी प्रकार से इनका एकाधिकार स्थापित हो जाये । यह बहुत भारी विडम्बना है कि इनका स्वरूप कुछ भी हो परंतु यदि ये अपने बनावटी मसीहा की छवि बनाए रखने में सफ़ल हो जाएँ तो जन मानस को इन्हें दैत्य अथवा नर पिशाच के स्थान पर देवता अथवा भगवान् कह कर पुकारने में अधिक देर नहीं लगेगी । ठीक इसी प्रकार से सद्कार्य में संलग्न कुछ गिने चुने लोग यदि अपने विशुद्ध अनुष्ठान में अंततोगत्वा असफल हो जाएँ तो जन मानस को उन्हें विपरीत संज्ञा से विभूषित करने अथवा उन्हें भ्रष्ट एवं दुराचारी कह कर पुकारने में भी अधिक देर नहीं लगेगी।
3 comments:
It is interesting in Hindi
How it is possible to write in Hindi in english blog
Comment on the Blog of 7th April 2007 "IF RAVAN WOULD HAVE WON THE WAR WITH RAM."
I dont find any reason to imagine that "IF RAVAN WOULD HAVE WON THE WAR WITH RAM". Of course it is true that JO "JEETA WAHI SIKANDER" but it is human psychology and limitations of mass. No doubt that Ravan was uncomparable brave and real luminary on oriental metaphysics but it is also a fact that he was not the master of undefeated charectar.If I take the base of RAM CHARITRA MANAS which has already been taken by author of the article the Ravan was defeated three times - 1.by monkey Bali,2.Sahastrabahu and 3.king Bali.Other than these defeats he was defeated by king JANAK on the subject of metaphysics as well as in the field of UPASNA/SADHANA he was defeated by king RAGHU THE FORE FATHER OF RAM.If Ravan would have not been so capable then the Ram would have not been come into existence.Simlarly the matter of Duryodhan should also be taken.As far temple or worshiping of Ravan & Duryodhan or others like that,I think that it is not any kind of significance.I may admit that the reason of war between Ram & Ravan or Duryodhan & yudhisthra was to establish their supermacy but the same is not a matter of monopoly for an individual.
In regard to present politicians the authors view is very correct but in comparison to Ram I would like to write that present politicians are being abused by mass in general except exceptions,behind them.One thing more that if undesirable conduct of any body is not defied by the competant person,the person concern is equally liable for the same conduct and who defied undesirable conduct & succeeded they have become Lord or God.
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