Friday, 6 April 2007

क्यों कि मेरा नीड़ मुझ से दूर था !


जब कि शाम आयी पखेरू फिर चले
कारवाँ निज पन्थ पर आगे बढ़ा
मैं अकेला दर्द का मारा हुआ
उस घड़ी में भी अथक चलता रहा
क्योंकि मेरा नीड़ मुझ से दूर था ।


रात भर चलता रहा येह सोचकर
कभी तो गंतब्य की डेवोढ़ी दिखेगी
नियति के परिधान की गठरी समेटे
कभी तो मंतव्य को कुछ गति मिलेगी ।

सोच लो जितना तुम्हें स्वीकार है
फूल मन के हैं कि जो खिलते नहीं हैं
एक मन है एक मन की चाह है
येह सुबह और शाम हैं मिलते नहीं हैं ।

जब कि प्रात आया विहंग वर उड्चले
कारवाँ निज पन्थ पर आगे बढ़ा
मैं उदास, हताश , हटकर राह से
रूपसी को छितिज की तकता रहा
क्योंकि मेरा नीड़ अब भी दूर था

2 comments:

Garv said...

Very pathetic

myso said...

Very nice

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