Sunday 6 May 2007

वेदना की ये निशानी ढुलकने दो !

मैं वियोगी प्यार के आंसू न पोंछो
वेदना की ये निशानी ढुलकने दो
ज़िन्दगी बेरास्ता हो जायेगी
तुम हमारी ब्यथा की आंधी न रोको ।

एक निश्चित क्रम सुबह और शाम का
लिए ज्यों ज्यों ज़िन्दगी ढलती रही
सजल मेघों की तरह भीगी हुयी
एक स्मृति है कि जो पलती रही

ये घुमड़ते मेघ जायेंगे कहॉ
बरसने दो बूँद बनकर वेदना
मुझे इन से प्रीत है अनुराग है
ये हमारी साधना हैं अर्चना

बाँध टूटा है द्रगों के धैर्य का
ये किसी की देन हैं इन को न टोको
जलधि से भी अधिक गहरायी लिए

पिघलते विश्वास की पीड़ा न रोको ।

3 comments:

Dr Ash said...

How touching and pathetic?

myso said...

So very beautiful and so touching also.

Garv said...

So nice

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