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Monday, 12 November 2007

Pangs of seclusion !

मैं वियोगी प्यार के आंसू न पोंछो
वेदना की यह निशानी धुलुकने दो
जिन्दगी बे रास्ता हो जायेगी
तुम हमारी ब्यथा की आंधी न रोको।
एक निश्चित क्रम सुबह और शाम का

लिये ज्यों ज्यों जिन्दगी ढलती रही
सजल मेघों की तरह भीगी हुयी
एक स्मृति है कि जो पलती रही ।
यह घुमड़ते मेघ जायेंगे कहाँ
बरसने दो बूँद बन कर वेदना
मुझे इन से प्रीत है अनुराग है
यह हमारी साधना हैं अर्चना।
बाँध टूटा है द्रगों के धैर्य का
स्नेह की ये धार हैं इन को न रोको
मैं वियोगी प्यार के आंसू न रोको
वेदना की ये निशानी धुलुकने दो.

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