
यह कश्ती डगमगाती है भंवर में
किधर जाएगी क्या अंजाम होगा
मेरी दुश्वारियों के सिलसिले को
कहॉ कब कौन कैसा नाम देगा ।
एक अदद ज़िन्दगी का पैराहन
सिमट रहा है ज़मीन्दोज़ कुहासे की तरह
तमाम उम्र के घाटे को जो चुका न सका
बंधी मुट्ठी के तंग हाल मुनाफे की तरह ।
ज़्ल्ज्लागर है ज़मीं आसमां की मत पूछो
ऎसी गर्दिश कि सितारों ने जंग छेड़ा है
जलावतन हूँ मैं आगोश से नशेमन की
ऐसा आलम है कि अपनों का रुख भी टेढ़ा है ।
मुझे दरकार थी सफीने की
मेरे नसीब को तिनके ने सहारा न दिया
बहुत लागर हूँ मैं लहरों के थपेड़े खाकर
नाखुदा दूर किसी अजनबी ने रुख न किया ।
मगर कुबूल नहीं आज भी शिकस्त मुझे
कशमकश जारी रहेगी हत्तुलइमकान
होश काबू में हैं जिस हाल में जिस लम्हा तक
मैं रचाता रहूँगा कोइ न कोइ उनवान ।
फिर तो कुदरत का करिश्मा मुझे संभालेगा
सिलसिला काएनात का है इतना
फिर तो जेबाएशे दरिया की लहर ओढ़ेगी
जमां दराज़ का भारी सपना
So pinching and touching.
ReplyDeleteHighly touching
ReplyDeleteVery lovely and encouraging poem.
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